Friday, October 11, 2013

परिंदे की उलझन

कविता जीवन का अनुभव होता है,उस अनुभव में ये जरुरी नहीं की वो अनुभव आपका अपना निजी हो वह किसी और के जीवन की घटना पर भी हो सकता है ।


परिंदे की उलझन
तुझे वही जगह मिली ...
उड़ते-उड़ते ऐ परिंदे क्यों गया तू वहां ...
जानता था कि तुझे कुछ नहीं मिलेगा वहां ...
जानकर भी अनजान बना सजा तो मिलेगी ...
इतने पल किया इंतजार ..
वो पल यू आयेगा और इस तरह गुजर जायेगा...
साथी पंछी तेरा किया इंतजार
तू क्यों मुझ घायल को छोड़ गया
इस बेरुखी को क्या समझू...?
हट जाऊ पीछे या चल चलू तेरे साथ-साथ
साथी परिंदे तूने छोड़ा मेरा साथ ...
तो अकेला पंछी कैसे लड़ेगा इतने बाजों से...?
तेरा सिर्फ थोड़ा सा साथ मिलने से पार कर
जायेंगे इस जहान को ..
लड़ जायेंगे दुनिया से...पा लेंगे मंजिल
ऐ साथी तेरे भरोसे उड़ान को निकली हू..
अब साथ छोड़ जाना नहीं...
कैसे जानू तुझे हर पल कुछ नया मिल जाता है ...
जब भी सोचा छोड़ दू तुझे...
पर न जाने क्यों खुदा फिर से पास ले आता है
तेरी एक मुस्कान,तेरी एक कही हुई बात क्यों
जहर को अमृत बना देती है?
उड़ी तो थी मैं अकेले ही साथी था
कोई और ....
सोचा न था वही पर काट देगा...
पर उन कट्टे परों को कोई फिर से उठा के
साथ देगा ये था तेरा अजूबा..
शायद इसीलिये फिर से अकेले जाने
से डरती हूँ.....कहीं इन
बाजों की दुनियां में खो ना जाऊ ...?
 
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